सूरज की तरफ पीठ किए मैं एक पूरा-पूरा दिन तुम्हें सोचता रहता हूं। ऐसा लगता है तुम पीछे कुछ दूरी पर बैठी मुझे लगातार देख रही हो। तुम्हारी आंखों की नज़र मेरी गर्दन पर एकटक चुभा हुआ है। इस गड़ने वाली नज़र से जो गर्मी निकलती है उससे मेरी कनपटी, गर्दन, कंधे और पीठ में अकड़न शुरू हो जाती है। इन जगहों के नसों में झुरझुरी होने लगती है। किसी रहस्यमयी सिनेमा में तनाव के समान तुम्हारा ख्याल हावी होता जाता है और मैं धूप में कांपने लगता हूं। प्यार में आदमी कहीं नहीं जाता। वहीं रहता है सदियों तलक। तुमने आज सुबह सुबह पिछले साल क्रिसमस की जो तस्वीर भेजी है, गोवा 2011 के नाम से सेव है। मैं यहां बैठा बैठा भी 2011 का ख्याल नहीं कर पाता। हालत किसी जख्मी परिंदे जैसा है जो भूलवश किसी गुंबद के अवशेष में आ गया है और अब चोटिल हो चारों दीवारों पर अपने पंजे मार कांय कांय किया करता है।
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प्रचंड गर्मी में सर पर जो थका हुआ पंखा अपने पूरे वेग से घूमता है जिसे कैमरे की नज़र से स्लो मोशन में घूमता नज़र आता है, वो भी सन्नाटा नहीं काट पाता। बाहर का तो क्या अंदर का सन्नाटा पूरा महफूज रहता है। कोई यकीन करेगा इस सिलकाॅन वैली में शहर के बीचोबीच ऐसी जगह भी जहां एक लड़की कुछ कमरों में बेहिसाब तनहाई में रेंगती रहती है। सच रसूल मियां मैंने सोचा था कि वो बहुत खुशमिज़ाज दिखेगी लेकिन वो तो किसी असायलम में मंदबुद्धि बच्चे (बच्ची भी नहीं) सा दिखी। हालांकि उसके चश्मे का पाॅवर बहुत अधिक है और दिखता होगा उसे पूरे चश्मे से ही लेकिन मुझे तो लगा जैसे इसमें भी किसी खास कोण या बिंदु पर आने वाले वस्तु ही उसे नज़र आती है। या फिर दृश्यों की भूखी वो अपने तरीके से चीज़ों को देखने का तरीका ईजाद किए हुए है। मुझे लगता है कभी कभी वो अपने गैलरी में घिसटती होती और अपने जांघों पर चाकू घोंप उससे रेत का समंदर निकालती होगी।
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कमरे में हवा तक फ्रीज है। सन्नाटे के एक-एक शोर को कांच के मर्तबान में रख दिया गया है। गुमां होता है जैसे उसने इसे लेमिनेट करवा रखा है। टेपरिकाॅर्डर से कुछ संगीत के कतरे बहते हैं। एक-एक आवाज़ टूटी हुई है जिनमें समझ में न आने वाली धुनें हैं, आलाप है। भाषा अलग है, गुहार वही है जो हर बार किसी लेखक/निर्देशक/कवि/अभिनेता/पेंटर/चित्रकार के दिल के दिल में हर रचना के बाद बच जाती है। एक अमिट प्यास, जो उकेर कर भी रह गई जैसे मर कर भी बच गए। वही खालीपन, सूनेपन और तकलीफ का अथाह समंदर। खेती वाले इलाके में जहां रात भर कुंए से सिंचाई होती है। सुबह तक कुंआ खाली हो जाता है, जलस्तर इतना घट जाता है कि दस-पंद्रह बाल्टी उजले गीले रेत भर दिखते हैं। मगर बारह घंटे बाद ही कुंआ फिर से लबालब ! धरती से सीधे जुड़े उस जलस्तर जैसा ही है अपनी तकलीफ जो हर उत्सव के बाद दोगुने वेग से बढ़ती है।
दिल से निकलती हूक का अनुवाद दिल कर ही लेता है। शुक्र है खुदा ने विरह की कोई जात नहीं बनाई। दुःख और दर्द किसी ट्रांशलेशन के मुहताज नहीं। चेहरे और आवाज़ के भाव इन सब को जीत लेता है। इस पहर आवाज़ वायलिन की पार पर चढ़ उसके माथे से अपना माथा, कंधे से कंधे, सीना से सीना, नाभि से नाभि, कमर से कमर से अपनी कमर, जांघ से जांघ, घुटने से घुटना, और अंगूठे से अंगूठा मिलाकर आदमकद रूप में सहवास करती है। यही वह समय है जब आवाज़ का दर्द इतना तीक्ष्ण हो जाता है जैसे हर लम्हा जीना नागवार गुज़रने लगता है। हर संस्कृति में प्रेम उतना ही तड़पाता है जैसे नुकीली और कसी चोली वाली किसी औरत के हाथ पीछे बंधे हों और वो बारिश में अपनी ऐडि़यां रगड़ती हो।
जो कालखंड संगीत के उस करते में बजता है वही मन में घटता है। कोई है जो मुझे मेरी जिंदगी के स्क्रिप्ट नैरेट करके कुछ यूं सुनाता है-
हम दिखाते हैं कि आपका दिल आपके फेफड़े से निकल कर किसी रेलवे लाइन की पटरी के ठीक बगल में गिरा हुआ है। दूर दूर तक कोई स्टेशन नहीं है और शताब्दी एक्सप्रेस रास्ता क्लियर पा पूरे वेग से गुज़र रही है। आपका दिल जो खून में नहाया है और पूंछ कटी छिपकली के समान डमरू की भांति बज रहा है। दिल अपनी एक आंख से पटरी पर का शोर सुनता है। अंधरे को चीरती हुए गाड़ी के डिब्बे दर डब्बे गुज़र रहे हैं। हर डब्बे के खत्म होने और दूसरे के शुरू होने के बीच का अंतराल हावी है। लगता है कोई परदा बीचों बीच चीड़ा जा रहा हो।
ब्लैक आउट
/कट टू /
हम दिखाते हैं कि किसी खेत में बरसात का थोड़ा सा पानी ढ़लान वाले कोने की तरफ जमी हुई है। मुहसर बच्चे मछली मार कर जा चुके हैं लेकिन उसे बचे हुए पानी में कुछ बच गई मछलियां अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही हैं। हम यह दिखाते हैं कि हर बार अलग अलग मछली अपनी सतह छोड़ ऊपर तक आती है और नीचे इंतज़ार करता बचे हुए मछलियों का परिवार किसी बड़े इंतज़ार में परेशान है। फिलहाल ऊपर को आयी मछली तेजी से अपनी पूंछ पानी की सतह पर फेरती हुई नीचे लौटती है। पानी में हरकत होती है फिर एक बुलबुला उसमें धीरे धीरे गुम होता है।
ब्लैक आउट
/कट टू /
कोई औरत अपना ब्लाउज खुद सिलना शुरू करती है। दो हिस्सों को जोड़ते वक्त रूक कर सोचती है काश टूटे दिल भी इसी तरह जोड़े जा सकते! फिर जब उभारों का हिस्सा निकाल अलग करती है तो ख्याल आता है काश ! कोई हमें भी बे-दिल कर देता!
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तो क्या बचे हुए का नाम जीवन है ? तो क्या जिंदगी का हासिल इंतज़ार है ? तो क्या फिर हमें कोई थपकियां देकर, लोरी सुना कर, सहला कर, पुचकार कोई सुला देगा या फिर भूख से रोते-रोते हमारे दिमाग की मांसपेशियों में आॅक्सीजन कम जाएगा तो हम खुद सो जाएंगे।
(डायरी अंश)
आपकी लेखनी का कायल हूं, हिंदी का मजा तब तक नहीं जब तक उसमे वो रस न हो!
ReplyDeleteयह सब ही जीवन है, बस उसे हटा कर जीवन ढूढ़ने की कशमकश में हम सब कुछ बिता देते हैं।
ReplyDeleteदिमाग सोचना बंद नहीं करता और दिल जज्बाती होना।
ReplyDeleteबहुत खूब ...
सागर जी, आप जितना लिखते हैं उससे ज्यादा छोड़ देते हैं मुझ जैसी औसत बुद्धिवालों के लिए. उलझ-२ सुलझता हुआ या सुलझ२ कर उलझता हुआ, मालूम नहीं.
ReplyDeleteदिल से निकलती हूक का अनुवाद दिल कर ही लेता है।
ReplyDelete:-)
Saagar you are my favourite. writer.
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