Skip to main content

फिलहाल सिसकी......

अजीब बात है। आप किसी से कहां तक नाराज़ रहोगे, इस ज़माने में। नारियल का सा तो दिल है आपका। अंदर से श्वेत और कोमल और ऊपर से इगो। ऐसे में गर नाराज़ होते हो तो तुम्हारी मर्जी। हो जाओ। न तुमसे वो राब्ता रखेगा कि तुम अपनी नाराज़गी उस तक पहुंचा सको। न तुम गुस्से के मारे उससे वास्ता रख पा रहे होगे। इससे ज़ाहिर ही न कर सकोगे। तो बहुत दिनों बाद घुमाफिरा कर बात वहीं पहुंचेगी कि तुम्हें मुस्कुराना ही पड़ेगा। कितनी शिकायतें कहां तक पालोगे? लेकिन अपने दिल में कहां से क्या तक सोचते फिरोगे? खाने का निवाला, च्वइंगम जैसा लगेगा और लिथड़ता जाएगा जो कि हलक के नीचे उतरने का नाम  नहीं लेगा। ख्याल आएगा तो पानी का एक बड़ी घूंट लेकर उसे बस जैसे तैसे नीचे धकेल दोगे। पेड़ के पत्तों के गुच्छे के नीचे का अंधेरा अपने मन जैसा लगेगा। बाहर का धुंधला कोहरा कहेगा कि देख मैं तेरे मन का प्रतिबिंब हूं। इस कदर तुम्हारे दिलो दिमाग पर काबिज़ हूं कि कुछ भी साफ नहीं  है। सोच का समंदर दूर, बहुत दूर तक हिलकोरे मारेगा। एक लहर उठेगी और कहेगी - निकाले फेंक उसका ख्याल दिल से। दूसरी कहेगी कि होता है, उसे एक मौका और दे। तीसरी कहेगी, ऐसा पहले भी हो चुका है। चौथी - तूने भी तो फलां के साथ ऐसा ही किया था। पांचवीं -जाने दे, हर घटना अपनी कीमत लेती है। इस रिश्ते को भी आखिर कुछ न कुछ चुकाना ही था। छठी- अब से किसी पर यकीन नहीं करूंगा। सातवीं - लेकिन फिलहाल किसके कंधे पर सर रखकर रोएगा ? तू गुनाह से तौबा भी करता रहेगा और फिर इसी चीज़ को किसी न किसी बहाने न्यौता भी देता रहेगा। हाथ में कोई पेंसिल होगी तो एक ही लकीर पर उसे घिसते घिसते लकीर मोटी कर देगा। मुंह में कोई सुपारी होगी तो उसे महीन दर महीन पीसता चला जाएगा। नौवां ख्याल पूरे वारदात को फिर से नए सिरे से सोचने को कहेगा। तू उस पर इस बार थोड़ा सजग होकर अमल करेगा। अबकी संवाद ज़रा ज्यादा संभले हुए होंगे। नपे-तुले होंगे। लेकिन कुछ दूर जाने के बाद फिर एक ज़ोरदार लहर उठेगी। खुद को ठगे जाने का ख्याल पहले से ज्यादा कड़वा बनकर इस कदर हावी होगा कि सोचेगा ज़िंदगी जैसे सबको मज़े देने वाली वेश्या हो गई है। हालांकि वेश्याओं का तेरे मन में बड़ा सम्मान होगा लेकिन जिस तरह लोग उसे बरतते हैं अपना हाल भी कुछ वैसा ही है। कोई भाववश मीठे बोलों का मरहम रख अपना मतलब निकाल ले जाता है, कोई मसखरी कर जांघों पर जली हुई सिगरेट बुझाता है। दसवीं कहेगा - अबकी तेरे पास जो आए तो.... दसवीं (ए) उसके मुंह पर थूक देना। दसवीं (बी) - उसके मुंह पर एक मुक्का जड़ देना। दसवीं (सी) - उसे बुरी तरह इग्नोर कर देना और फिर उसकी प्रतिक्रिया देखना। दसवीं (डी) - उसे कुछ मत कहना। एक शब्द भी नहीं। बस चुपचाप रहना। चूंकि ये सारी चीज़ें इस तरह से खत्म नहीं होती है इसलिए विकल्प डी। फिर क्या होगा? फिर वो कहेगा कि क्या बात है? तुम - (अति उत्साह से, ध्यान तोड़ते हुए) नहीं.....। नहीं तो। वो एक घुन्नापन ओढ़ लेगा और तुम्हें देखता रहेगा। तुम्हारे सब्र का बांध टूटता जाएगा। तुम भूलते जाओगे कि तुम्हें चुप रहना था। तुम्हें इस बात पर गुस्सा आता रहेगा कि वो इतना शांत कैसे है? लेकिन इस नाटक में वो नेचुरल रहेगा। जबकि तुम अतिरेक जोश में तमाम कसमों और तौबा के बाद भी कोई बात नहीं है को साबित करने में ऐसे उपक्रम करोगे कि ऊन का खुल कर लुढ़कता हुआ गोला बनते जाओगे। फिर न संभलने वाले जज्बात का ऐसा सैलाब जिसे बांधा नहीं जा सकता। हो सकता है कि तुम्हारे सब्र का यह बांध भी टूट जाए और तुम आखिरकार रो ही पड़ो..... लेकिन तुमने यह तो नहीं चाहा था। तुम अभी वर्तमान में इतने गुम हो कि सोच नहीं पा रहे कि तुम्हारी एक बार फिर से हार हो चुकी है। और उसकी जीत। हालांकि यह अभी परिभाषित नहीं है लेकिन इस तरह के कुछेक घटनाओं के दोहराव से यह साबित हो जाता है तुम्हें उसकी जरूरत है और आगे भी होगी लेकिन यह उसकी मर्जी और फुरसत होगी कि वह तुम्हारी पीठ थपथपाकर चुप कराने को उपलब्ध है या नहीं।

(फिलहाल सिसकी.......)

Comments

  1. deja vu.
    ये घट चुका है तुम्हारे साथ पहले। फिर कब सम्हलोगे?
    ---
    वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन...उसे एक फिलहाल तलक ठहराये हुये रखना?
    तुम्हारे खत खुदा के दरवाजे तक पहुंचते हैं...कह दो एक रोज सारा कुछ...

    पढ़ा है तुम्हें, जिया है तुम्हें, सोचा भी है दिन के कई पहर...हो ये भी तो सकता है कि कोई बस उतने भर के लिये था। तकलीफ जितनी उसने दी है, तुमने दामन फैलाये मांगी भी तो थी...वो जो खुदा बोल के बैठा है उपर। उससे कितने सवाल करोगे? रो रो के समंदर भर दो और फिर खाली दिल और दामन लिये उस किनारे से लौट आओ।

    दोस्त, हम जन्म से अकेले हैं। उदास क्षणों में तो और भी। इतने दिनों से किसी को पढ़ते रहने पर कुछ हक बन जाता है।
    सुनो, एक गीत सुनो...
    धारा जो बहती है, मिलके रहती है
    बहती धारा बन जा...फिर दुनिया से बोल

    http://www.youtube.com/watch?v=pGYjHQbV1KE

    सुनो, मुस्कुरा दो जरा। तुम्हारी सिसकी चुभती है बहुत।

    ReplyDelete
  2. समझाना तो उसे है जिसे सिसकने में पीड़ा हुयी, हम तो सोचते ही रहे।

    ReplyDelete
  3. नारियल सा दिल :)
    शानदार लिखते हो आप .........

    ReplyDelete
  4. एक कालचक्र की भाँती नाराज होने, शिकायत करने, कभी ना बात करने, मनाने की उम्मीद के दौर से ज़िंदगी में असंख्य बार गुजरना होता है पर हर बार खुद को इस चक्र में पीसते देख कर कुछ नहीं सीखते, हर बार घटना की कीमत चुका नयी घटना के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं यह पोस्ट सभी की आपबीती है.

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ